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कहीं तो फेंक ही देंगे ये बार साँसों का - अरशद महमूद अरशद कविता - Darsaal

कहीं तो फेंक ही देंगे ये बार साँसों का

कहीं तो फेंक ही देंगे ये बार साँसों का

उठाए बोझ जो फिरते हैं यार साँसों का

अना ग़ुरूर तकब्बुर हयात कुछ भी नहीं

कि सारा खेल है प्यारे ये चार साँसों का

चलो ये ज़िंदगी ज़िंदा-दिली से जीते हैं

बढ़ेगा इस तरह कुछ तो वक़ार साँसों का

गुलाबी होंट वो होंटों पे रख के कहती थी

सदा रहेगा ये तुझ पर ख़ुमार साँसों का

बड़े क़रीब से गुज़री है मौत छू के तुझे

जो हो सके कोई सदक़ा उतार साँसों का

हवा ये वज्द में आ कर दिए से कहने लगी

कि अब तू सह नहीं पाएगा वार साँसों का

हम इस को ज़िंदगी समझें तो किस तरह 'अरशद'

किसी के हाथ में है इख़्तियार साँसों का

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