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ज़िम्मेदारी - अरशद कमाल कविता - Darsaal

ज़िम्मेदारी

हिसार-ए-तश्कीक तोड़ कर तुम

उठो ज़मीं से

फ़लक पे पहुँचो

फिर इस जहाँ पर निगाह डालो

ख़ुदा-रा अपना मक़ाम समझो

शुऊर-ए-मख़्सूस

जो वदीअत हुआ है तुम को

ज़रा तुम उस से जो काम ले लो

तो शोर-ए-शब-ख़ूँ

जो हर तरफ़ है

ये ख़ुद-ब-ख़ुद ही ख़मोश होगा

ये उल-अतश की सदा

जो हर सम्त उठ रही है

तुम उस पे लब्बैक कह कर अपनी

फ़ुरात का दर ख़ुदा-रा खोलो!

ख़िज़ाँ की महफ़िल में

रंग-ओ-बू के मुज़ाकरे की

सबील तुम हो

तुम्हारे शानों पे

ज़िम्मेदारी है कितनी समझो!

कि मुनहसिर है

बक़ा-ए-आलम

फ़क़त तुम्हीं पर

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