ज़िम्मेदारी
हिसार-ए-तश्कीक तोड़ कर तुम
उठो ज़मीं से
फ़लक पे पहुँचो
फिर इस जहाँ पर निगाह डालो
ख़ुदा-रा अपना मक़ाम समझो
शुऊर-ए-मख़्सूस
जो वदीअत हुआ है तुम को
ज़रा तुम उस से जो काम ले लो
तो शोर-ए-शब-ख़ूँ
जो हर तरफ़ है
ये ख़ुद-ब-ख़ुद ही ख़मोश होगा
ये उल-अतश की सदा
जो हर सम्त उठ रही है
तुम उस पे लब्बैक कह कर अपनी
फ़ुरात का दर ख़ुदा-रा खोलो!
ख़िज़ाँ की महफ़िल में
रंग-ओ-बू के मुज़ाकरे की
सबील तुम हो
तुम्हारे शानों पे
ज़िम्मेदारी है कितनी समझो!
कि मुनहसिर है
बक़ा-ए-आलम
फ़क़त तुम्हीं पर
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