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समुंदर से किसी लम्हे भी तुग़्यानी नहीं जाती - अरशद कमाल कविता - Darsaal

समुंदर से किसी लम्हे भी तुग़्यानी नहीं जाती

समुंदर से किसी लम्हे भी तुग़्यानी नहीं जाती

मगर साहिल को ग़म है ख़ुश्क-दामानी नहीं जाती

ग़नीमत है मिरी आँखों की ये सय्याल आतिश भी

इसी से मेरे ज़ेहन-ओ-दिल की ताबानी नहीं जाती

सवा-नेज़े पे सूरज देर तक रुकने नहीं पाता

मगर क्या है कि तेरी शो'ला-अफ़्शानी नहीं जाती

सदा-ए-ख़ामुशी देती है अब दस्तक दर-ए-दिल पर

न जाने क्यूँ हमारे घर से वीरानी नहीं जाती

रिहा हो कर भी कुछ ताइर क़फ़स में लौट आते हैं

फ़ज़ा-ए-क़ैद की आदत ब-आसानी नहीं जाती

तमद्दुन का नया जामा बहुत शफ़्फ़ाफ़ है यारो

कि तन-पोशी करो कितनी ही उर्यानी नहीं जाती

जतन सारे ही करता हूँ मगर क्या कीजिए 'अरशद'

मिरी ख़ुद्दारी-ए-फ़ितरत है दीवानी नहीं जाती

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