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हम ज़ीस्त की मौजों से किनारा नहीं करते - अरशद कमाल कविता - Darsaal

हम ज़ीस्त की मौजों से किनारा नहीं करते

हम ज़ीस्त की मौजों से किनारा नहीं करते

साहिल से समुंदर का नज़ारा नहीं करते

हर शो'बा-ए-हस्ती है तलबगार-ए-तवाज़ुन

रेशम से कभी टाट सँवारा नहीं करते

दरिया को समझने की तमन्ना है तो फिर क्यूँ

दरिया के किनारे से किनारा नहीं करते

दस्तक से इलाक़ा रहा कब शीश-महल को

ख़्वाबीदा समाअ'त को पुकारा नहीं करते

हम फ़र्त-ए-मसर्रत में कहीं जाँ से नहीं जाएँ

इस ख़ौफ़ से वो ज़िक्र हमारा नहीं करते

हम उन के तग़ाफ़ुल को समझते तो हैं लेकिन

दुनिया भी समझ ले ये गवारा नहीं करते

ज़ुल्मत से ही कुछ नूर निचोड़ो कि हम 'अरशद'

माँगे के उजाले पे गुज़ारा नहीं करते

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