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इक लफ़्ज़ आ गया था जो मेरी ज़बान पर - अरशद कमाल कविता - Darsaal

इक लफ़्ज़ आ गया था जो मेरी ज़बान पर

इक लफ़्ज़ आ गया था जो मेरी ज़बान पर

छाया रहा न जाने वो किस किस के ध्यान पर

मुझ को तलाश करते हो औरों के दरमियाँ

हैरान हो रहा हूँ तुम्हारे गुमान पर

महफ़िल में दोस्तों की वही नग़्मा बन गया

शब-ख़ून का जो शोर था मेरे मकान पर

बे-शक ज़मीं हनूज़ है अपने मदार में

लेकिन दिमाग़ उस का तो है आसमान पर

शायद मिरी तलाश में उतरी है चर्ख़ से

जो धूप पड़ रही है मिरे साएबान पर

रहता है बे-नियाज़ जो आब ओ सराब से

खुलता है राज़-ए-दश्त उसी सारबान पर

एहसास उस का जामा-ए-इज़हार माँगे है

उफ़्ताद आ पड़ी है ये 'अरशद' की जान पर

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