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पलट कर देखने का मुझ में यारा ही नहीं था - अरशद जमाल 'सारिम' कविता - Darsaal

पलट कर देखने का मुझ में यारा ही नहीं था

पलट कर देखने का मुझ में यारा ही नहीं था

नहीं ऐसा कि फिर उस ने पुकारा ही नहीं था

समुंदर की हर इक शय पर हमारी दस्तरस थी

कि तुग़्यानी भी अपनी थी किनारा ही नहीं था

वो इक लम्हा सज़ा काटी गई थी जिस की ख़ातिर

वो लम्हा तो अभी हम ने गुज़ारा ही नहीं था

वो बन कर चाँद तब उतरा था इस दिल की ज़मीं पर

मोहब्बत का जब आँखों में सितारा ही नहीं था

वरा-ए-जिस्म था कुछ और भी उस के जिलौ में

फ़क़त वो रौशनी का इस्तिआरा ही नहीं था

जुनूँ के पाँव में छन कैसी दर आई कि मैं ने

अभी वहशत को सहरा में उतारा ही नहीं था

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