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क्या कहूँ कितनी अज़िय्यत से निकाली गई शब - अरशद जमाल 'सारिम' कविता - Darsaal

क्या कहूँ कितनी अज़िय्यत से निकाली गई शब

क्या कहूँ कितनी अज़िय्यत से निकाली गई शब

हाँ यही शब ये मिरी हिज्र बना ली गई शब

पहले ज़ुल्मत का परस्तार बनाया गया मैं

और फिर मेरी निगाहों से उठा ली गई शब

रात भर फ़तह वो करती रही उजियारों को

सुब्ह-दम अपने अँधेरों से भी ख़ाली गई शब

ता सदा मुझ में रहें चाँद सितारे रौशन

मेरी मिट्टी में तबीअत से मिला ली गई शब

ख़त्म होता ही नहीं सिलसिला तन्हाई का

जाने किस दर्जा मसाफ़त में है ढाली गई शब

फ़स्ल मक़्सूद थी 'सारिम' हमें सूरज की जहाँ

हैफ़ है उन ही ज़मीनों पे उगा ली गई शब

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