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क्या कहूँ कितना फ़ुज़ूँ है तेरे दीवाने का दुख - अरशद जमाल 'सारिम' कविता - Darsaal

क्या कहूँ कितना फ़ुज़ूँ है तेरे दीवाने का दुख

क्या कहूँ कितना फ़ुज़ूँ है तेरे दीवाने का दुख

इक तरफ़ जाने का ग़म है इक तरफ़ आने का दुख

है अजब बे-रंगी-ए-अहवाल मुझ में मौजज़न

ने ही जीने की तलब है ने ही मर जाने का दुख

तोड़ डाला था सभी को दर्द के आज़ार ने

सह न पाया था कोई किरदार अफ़्साने का दुख

ख़ून रो उठती हैं सब आँखें निगार-ए-सुब्ह की

बाँटती है शब कभी जो आईना-ख़ाने का दुख

शम्अ' भी तो हो रही होती है हर पल राएगाँ

क्यूँ फ़क़त हम को नज़र आता है परवाने का दुख

सर पटकती थीं मुसलसल माैज-हा-ए-तिश्नगी

होंट के साहिल पे ख़ेमा-ज़न था पैमाने का दुख

लोटता है जब भी सीने पर शनासाई का साँप

लहर उठता है बदन में एक अनजाने का दुख

वार देता हूँ मैं 'सारिम' अपनी सब आबादियाँ

मुझ से देखा ही नहीं जाता है वीराने का दुख

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