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कहाँ कहाँ से सुनाऊँ तुम्हें फ़साना-ए-शब - अरशद जमाल 'सारिम' कविता - Darsaal

कहाँ कहाँ से सुनाऊँ तुम्हें फ़साना-ए-शब

कहाँ कहाँ से सुनाऊँ तुम्हें फ़साना-ए-शब

तवील गुज़रा है मुझ पर बहुत ज़माना-ए-शब

महक रहा है हमीं से हरीम-ए-गुलशन-ए-रोज़

हमीं से नूर-फ़ज़ा है निगार-खाना-ए-शब

हुआ है हुक्म ये मिन-जानिब-ए-शह-ए-ज़ुल्मात

हुदूद-ए-शहर-ए-सियह छोड़ दे दिवाना-ए-शब

ख़मोश होते हैं दिन के तमाम-तर सिक्के

खनकता रहता है कश्कोल-ए-दिल में आना-ए-शब

हर एक शाख़ पे वीरानियाँ मुसल्लत हैं

बदन-दरख़्त भी गोया है आशियाना-ए-शब

तमाम यादें तो आ बैठती हैं शाम-ढले

उदास रहता है फिर किस लिए सिरहाना-ए-शब

उमीद ख़ाक रखी जाए अब उजालों की

चराग़ औंधे पड़े हैं ब-आस्ताना-ए-शब

हलाल रिज़्क़ मयस्सर हो क्या उन्हें 'सारिम'

कि जिन परिंदों को चुगना है सिर्फ़ दाना-ए-शब

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