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जुड़े हुए हैं परी-ख़ाने मेरे काग़ज़ से - अरशद जमाल 'सारिम' कविता - Darsaal

जुड़े हुए हैं परी-ख़ाने मेरे काग़ज़ से

जुड़े हुए हैं परी-ख़ाने मेरे काग़ज़ से

जो उठ रहे हैं ये अफ़्साने मेरे काग़ज़ से

कतरता रहता है मिक़राज़-ए-चश्म से मुझ को

बनाना क्या है उसे जाने मेरे काग़ज़ से

क़लम ने नोक-ए-अलम क्या रखी ब-चश्म-ए-दिल

छलकने लग गए पैमाने मेरे काग़ज़ से

रक़म करूँ भी तो कैसे मैं दास्तान-ए-वफ़ा

हुरूफ़ फिरते हैं बेगाने मेरे काग़ज़ से

अभी रखी भी नहीं लौ चराग़ पर मैं ने

लिपट गए कई परवाने मेरे काग़ज़ से

कुदाल-ए-ख़ामा से बोता हूँ मैं जुनूँ 'सारिम'

सो उगते रहते हैं दीवाने मेरे काग़ज़ से

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