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दिखाती है जो ये दुनिया वो बैठा देखता हूँ मैं - अरशद जमाल 'सारिम' कविता - Darsaal

दिखाती है जो ये दुनिया वो बैठा देखता हूँ मैं

दिखाती है जो ये दुनिया वो बैठा देखता हूँ मैं

है तुफ़ मुझ पर तमाशा-बीन हो कर रह गया हूँ मैं

बस इतना रब्त काफ़ी है मुझे ऐ भूलने वाले

तिरी सोई हुई आँखों में अक्सर जागता हूँ मैं

न क्यूँ होगी मिरी बार-आवरी फिर देखने लाएक़

मोहब्बत की महकती ख़ाक में बोया गया हूँ मैं

मिरी आबादियों में चार-सू बिखरा है सन्नाटा

हिसार-ए-ख़ौफ़ से चारों तरफ़ बाँधा गया हूँ मैं

रुलाती हैं मिरी यादें हमेशा ख़ून के आँसू

किसी नादार पे गुज़रा हुआ इक हादसा हूँ मैं

मुसलसल ही बढ़ाई हैं किसी की धड़कनें मैं ने

मुसलसल ही किसी के ज़ेहन से सोचा गया हूँ मैं

विरासत हूँ मैं इक ढलती हुई तहज़ीब की 'सारिम'

कहीं खोया गया हूँ मैं कहीं पाया गया हूँ मैं

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