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बस कि इक लम्स की उम्मीद पे वारे हुए हैं - अरशद जमाल 'सारिम' कविता - Darsaal

बस कि इक लम्स की उम्मीद पे वारे हुए हैं

बस कि इक लम्स की उम्मीद पे वारे हुए हैं

सो तिरे सामने ये ख़ाक पसारे हुए हैं

जाने कब उन को बुझा बैठे कोई बाद-ए-अलम

सर-ए-मिज़्गान-ए-तमन्ना जो सितारे हुए हैं

ज़िंदगी तू भी हमें वैसे ही इक रोज़ गुज़ार

जिस तरह हम तुझे बरसों से गुज़ारे हुए हैं

नित-नए नक़्श करें उस पे अज़िय्यत के रक़म

आ कि हम तख़्ती-ए-दिल अपनी पचारे हुए हैं

कब कुचल जाएँ किसी पाँव से हम बर्ग-ए-वजूद

वक़्त की धूप में वैसे ही करारे हुए हैं

जानते हैं कि तू ही इश्क़-बदन को है लिबास

हम तिरा रूप जो आशुफ़्तगी धारे हुए हैं

अपनी जुरअत की सताइश हो कि हम चोब-मिज़ाज

रब्त रखते हैं सदा उन से जो आरे हुए हैं

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