यूँ रूह थी अदम में मिरी बहर-ए-तन उदास
ग़ुर्बत में जिस तरह हो ग़रीब-उल-वतन उदास
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गर दिल में कर के सैर-ए-दिल-ए-दाग़-दार देख
बा'द मेरे जो किया शाद किसी को तो कहा
लुत्फ़-ए-बहार मुश्फ़िक़-ए-मन देखते चलो
जुनूँ बरसाए पत्थर आसमाँ ने मज़रा-ए-जाँ पर
ख़फ़ा हो गालियाँ दो चाहे आने दो न आने दो
ये बोले जो उन को कहा बे-मुरव्वत
सैद ख़ाइफ़ वो हों इस सैद-गह-ए-आ'लम में
शरफ़ इंसान को कब ज़िल्ल-ए-हुमा देता है
मंज़िल है अपनी अपनी 'क़लक़' अपनी अपनी गोर
यार के नर्गिस-ए-बीमार का बीमार रहा
इश्क़ में तेरे जान-ए-ज़ार हैफ़ है मुफ़्त में चली
दफ़्तर जो गुलों के वो सनम खोल रहा है