वो रिंद हूँ कि मुझे हथकड़ी से बैअत है
मिला है गेसू-ए-जानाँ से सिलसिला दिल का
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लूटे मज़े जो हम ने तुम्हारे उगाल के
उम्र तो अपनी हुई सब बुत-परस्ती में बसर
पूछा सबा से उस ने पता कू-ए-यार का
मुबारक दैर-ओ-का'बा हों 'क़लक़' शैख़-ओ-बरहमन को
मिलता है क़ैद-ए-ग़म में भी लुत्फ़-ए-फ़ज़ा-ए-बाग़
रस्ते में उन को छेड़ के खाते हैं गालियाँ
हिम्मत का ज़ाहिदों की सरासर क़ुसूर था
ख़ुश-क़दों से कभी आलम न रहेगा ख़ाली
डोरा नहीं है सुरमे का चश्म-ए-सियाह में
बे-सबब ग़ुंचे चटकते नहीं गुलज़ारों में
बशर के फ़ैज़-ए-सोहबत से लियाक़त आ ही जाती है
करेंगे हम से वो क्यूँकर निबाह देखते हैं