उम्र तो अपनी हुई सब बुत-परस्ती में बसर
नाम को दुनिया में हैं अब साहब-ए-इस्लाम हम
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बे-अब्र रिंद पीते नहीं वाइ'ज़ो शराब
दस्त-ए-जुनूँ ने फाड़ के फेंका इधर-उधर
फँस गया है दाम-ए-काकुल में बुतान-ए-हिन्द के
घाट पर तलवार के नहलाईयो मय्यत मिरी
ये बोले जो उन को कहा बे-मुरव्वत
ख़फ़ा हो गालियाँ दो चाहे आने दो न आने दो
यार के नर्गिस-ए-बीमार का बीमार रहा
आरिज़ में तुम्हारे क्या सफ़ा है
ख़ुश-क़दों से कभी आलम न रहेगा ख़ाली
यूँ राही-ए-अ'दम हुई बा-वस्फ़-ए-उज़्र-ए-लंग
अदा से देख लो जाता रहे गिला दिल का
हम उन से और वो हम से दम-ए-सुल्ह थे ख़जिल