तिलाई रंग जानाँ का अगर मज़मून लिखूँ ख़त में
तो हाला गिर्द हर्फ़ों के बने सोने के पानी का
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शरफ़ इंसान को कब ज़िल्ल-ए-हुमा देता है
छेड़ा अगर मिरे दिल-ए-नालाँ को आप ने
आख़िर इंसान हूँ पत्थर का तो रखता नहीं दिल
हम तो न घर में आप के दम-भर ठहरने आएँ
हम उन से और वो हम से दम-ए-सुल्ह थे ख़जिल
मिलता है क़ैद-ए-ग़म में भी लुत्फ़-ए-फ़ज़ा-ए-बाग़
लुत्फ़-ए-बहार मुश्फ़िक़-ए-मन देखते चलो
वाइज़ की ज़िद से रिंदों ने रस्म-ए-जदीद की
मंज़िल है अपनी अपनी 'क़लक़' अपनी अपनी गोर
वो रिंद हूँ कि मुझे हथकड़ी से बैअत है
क्या कोई दिल लगा के कहे शे'र ऐ 'क़लक़'
मुझ से उन आँखों को वहशत है मगर मुझ को है इश्क़