तिरे होंठों से शर्मा कर पसीने में हुआ ये तर
ख़िज़र ने ख़ुद अरक़ पोंछा जबीन-ए-आब-ए-हैवाँ का
Gulzar
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बशर के फ़ैज़-ए-सोहबत से लियाक़त आ ही जाती है
गुलगश्त-ए-बाग़ को जो गया वो गुल-ए-फ़रंग
बाक़ी न हुज्जत इक दम-ए-इसबात रह गई
तासीर जज़्ब मस्तों की हर हर ग़ज़ल में है
मिलता है क़ैद-ए-ग़म में भी लुत्फ़-ए-फ़ज़ा-ए-बाग़
फिर गया आँखों में उस कान के मोती का ख़याल
यूँ राही-ए-अ'दम हुई बा-वस्फ़-ए-उज़्र-ए-लंग
मंज़िल है अपनी अपनी 'क़लक़' अपनी अपनी गोर
काबे से खींच लाया हम को सनम-कदे में
दफ़्तर जो गुलों के वो सनम खोल रहा है
लुत्फ़-ए-बहार मुश्फ़िक़-ए-मन देखते चलो