सैद ख़ाइफ़ वो हों इस सैद-गह-ए-आ'लम में
अपने साए को समझता हूँ कि सय्याद आया
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कोताह उम्र हो गई और ये न कम हुई
अदा से देख लो जाता रहे गिला दिल का
मुबारक दैर-ओ-का'बा हों 'क़लक़' शैख़-ओ-बरहमन को
बशर के फ़ैज़-ए-सोहबत से लियाक़त आ ही जाती है
अगर न जामा-ए-हस्ती मिरा निकल जाता
ज़मीन पाँव के नीचे से सरकी जाती है
फिर मुझ से इस तरह की न कीजेगा दिल-लगी
दिल में आते ही ख़ुशी साथ ही इक ग़म आया
वाइज़ की ज़िद से रिंदों ने रस्म-ए-जदीद की
तिलाई रंग जानाँ का अगर मज़मून लिखूँ ख़त में
उन वाइ'ज़ों की ज़िद से हम अब की बहार में
बना कर तिल रुख़-ए-रौशन पर दो शोख़ी से से कहते हैं