फिर मुझ से इस तरह की न कीजेगा दिल-लगी
ख़ैर इस घड़ी तो आप का मैं कर गया लिहाज़
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दिल ख़स्ता हो तो लुत्फ़ उठे कुछ अपनी ग़ज़ल का
ख़ुश-क़दों से कभी आलम न रहेगा ख़ाली
कोताह उम्र हो गई और ये न कम हुई
दाँतों से जबकि उस गुल-ए-तर के दबाए होंठ
ख़ुदा-हाफ़िज़ है अब ऐ ज़ाहिदो इस्लाम-ए-आशिक़ का
आश्ना होते ही उस इश्क़ ने मारा मुझ को
नहीं चमके ये हँसने में तुम्हारे दाँत अंजुम से
बोलेगा कौन आशिक़-ए-नादार की तरफ़
आलम-ए-पीरी में क्या मू-ए-सियह का ए'तिबार
दफ़्तर जो गुलों के वो सनम खोल रहा है
करेंगे हम से वो क्यूँकर निबाह देखते हैं
पूछा सबा से उस ने पता कू-ए-यार का