मुबारक दैर-ओ-का'बा हों 'क़लक़' शैख़-ओ-बरहमन को
बिछाएँगे मुसल्ला चल के हम मेहराब-ए-अबरू में
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अपने बेगाने से अब मुझ को शिकायत न रही
पिन्हाँ था ख़ुश-निगाहों की दीदार का मरज़
ख़ुदा-हाफ़िज़ है अब ऐ ज़ाहिदो इस्लाम-ए-आशिक़ का
कुफ्र-ओ-इस्लाम के झगड़ों से छुड़ाया सद-शुक्र
बुत-परस्ती ने किया आशिक़-ए-यज़्दाँ मुझ को
रस्ते में उन को छेड़ के खाते हैं गालियाँ
रग-ओ-पै में भरा है मेरे शोर उस की मोहब्बत का
सिंदूर उस की माँग में देता है यूँ बहार
न वो ख़ुशबू है गुलों में न ख़लिश ख़ारों में
कोताह उम्र हो गई और ये न कम हुई
गुलगश्त-ए-बाग़ को जो गया वो गुल-ए-फ़रंग
बाक़ी न हुज्जत इक दम-ए-इसबात रह गई