मिसाल-ए-आइना हम जब से हैरती हैं तिरे
कि जिन दिनों में न था तू सिंगार से वाक़िफ़
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ज़मीन पाँव के नीचे से सरकी जाती है
यार के नर्गिस-ए-बीमार का बीमार रहा
बना कर तिल रुख़-ए-रौशन पर दो शोख़ी से से कहते हैं
ख़ुश-क़दों से कभी आलम न रहेगा ख़ाली
मैं वो मय-कश हूँ मिली है मुझ को घुट्टी में शराब
हम तो न घर में आप के दम-भर ठहरने आएँ
तिरे होंठों से शर्मा कर पसीने में हुआ ये तर
हम उन से और वो हम से दम-ए-सुल्ह थे ख़जिल
ख़रीदारी-ए-जिंस-ए-हुस्न पर रग़बत दिलाता है
हुज़ूर-ए-ग़ैर तुम उश्शाक़ की तहक़ीर करते हो
बे-ज़बानों को भी गोयाई सिखाना चाहिए
मंज़िल है अपनी अपनी 'क़लक़' अपनी अपनी गोर