मंज़िल है अपनी अपनी 'क़लक़' अपनी अपनी गोर
कोई नहीं शरीक किसी के गुनाह में
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यार की फ़र्त-ए-नज़ाकत का हूँ मैं शुक्र-गुज़ार
उम्र तो अपनी हुई सब बुत-परस्ती में बसर
जमे क्या पाँव मेरे ख़ाना-ए-दिल में क़नाअ'त का
आलम-ए-पीरी में क्या मू-ए-सियह का ए'तिबार
लुत्फ़-ए-बहार मुश्फ़िक़-ए-मन देखते चलो
आख़िर इंसान हूँ पत्थर का तो रखता नहीं दिल
गुल-गूँ तिरी गली रहे आशिक़ के ख़ून से
कोताह उम्र हो गई और ये न कम हुई
ख़ुदा-हाफ़िज़ है अब ऐ ज़ाहिदो इस्लाम-ए-आशिक़ का
लाग़र ऐसा वहशत-ए-इश्क़-ए-लब-ए-शीरीं में हूँ
आरिज़ में तुम्हारे क्या सफ़ा है
लूटे मज़े जो हम ने तुम्हारे उगाल के