मैं वो मय-कश हूँ मिली है मुझ को घुट्टी में शराब
शीर के बदले पिया है मैं ने शीरा ताक का
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तिलाई रंग जानाँ का अगर मज़मून लिखूँ ख़त में
फिर मुझ से इस तरह की न कीजेगा दिल-लगी
वो एक रात तो मुझ से अलग न सोएगा
घाट पर तलवार के नहलाईयो मय्यत मिरी
इश्क़ में तेरे जान-ए-ज़ार हैफ़ है मुफ़्त में चली
डोरा नहीं है सुरमे का चश्म-ए-सियाह में
दस्त-ए-जुनूँ ने फाड़ के फेंका इधर-उधर
था क़स्द-ए-क़त्ल-ए-ग़ैर मगर मैं तलब हुआ
दफ़्तर जो गुलों के वो सनम खोल रहा है
जो साक़िया तू ने पी के हम को दिया है जाम-ए-शराब आधा
कुफ्र-ओ-इस्लाम के झगड़ों से छुड़ाया सद-शुक्र