मय जो दी ग़ैर को साक़ी ने कराहत देखो
शीशा-ए-मय को मरज़ हो गया उबकाई का
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परतव-ए-रुख़ का तिरे दिल में गुज़र रहता है
सैद ख़ाइफ़ वो हों इस सैद-गह-ए-आ'लम में
ऐ परी-ज़ाद जो तू रक़्स करे मस्ती में
हुज़ूर-ए-ग़ैर तुम उश्शाक़ की तहक़ीर करते हो
क्या कोई दिल लगा के कहे शे'र ऐ 'क़लक़'
अदा से देख लो जाता रहे गिला दिल का
न वो ख़ुशबू है गुलों में न ख़लिश ख़ारों में
उम्र तो अपनी हुई सब बुत-परस्ती में बसर
बुत-परस्ती ने किया आशिक़-ए-यज़्दाँ मुझ को
डोरा नहीं है सुरमे का चश्म-ए-सियाह में
आश्ना होते ही उस इश्क़ ने मारा मुझ को
ये बारीक उन की कमर हो गई