कुछ ख़बर देता नहीं उस की दिल-ए-आगह मुझे
वही के मानिंद अब मौक़ूफ़ है इल्हाम का
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कोताह उम्र हो गई और ये न कम हुई
न कल तक थे वो मुँह लगाने के क़ाबिल
वो एक रात तो मुझ से अलग न सोएगा
गुलों पर साफ़ धोका हो गया रंगीं कटोरी का
शरफ़ इंसान को कब ज़िल्ल-ए-हुमा देता है
याद दिलवाइए उन को जो कभी वादा-ए-वस्ल
क्या कोई दिल लगा के कहे शे'र ऐ 'क़लक़'
सोते हैं फैल फैल के सारे पलंग पर
लुत्फ़-ए-बहार मुश्फ़िक़-ए-मन देखते चलो
काबे से खींच लाया हम को सनम-कदे में
हुज़ूर-ए-ग़ैर तुम उश्शाक़ की तहक़ीर करते हो