खुलने से एक जिस्म के सौ ऐब ढक गए
उर्याँ-तनी भी जोश-ए-जुनूँ में लिबास है
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मंज़िल है अपनी अपनी 'क़लक़' अपनी अपनी गोर
दस्त-ए-जुनूँ ने फाड़ के फेंका इधर-उधर
दिल में आते ही ख़ुशी साथ ही इक ग़म आया
ज़मीन पाँव के नीचे से सरकी जाती है
गर दिल में कर के सैर-ए-दिल-ए-दाग़-दार देख
'क़लक़' ग़ज़लें पढ़ेंगे जा-ए-कुरआँ सब पस-ए-मुर्दन
रस्ते में उन को छेड़ के खाते हैं गालियाँ
बे-अब्र रिंद पीते नहीं वाइ'ज़ो शराब
छेड़ा अगर मिरे दिल-ए-नालाँ को आप ने
बना कर तिल रुख़-ए-रौशन पर दो शोख़ी से से कहते हैं
आश्ना होते ही उस इश्क़ ने मारा मुझ को
चश्मक-ज़नी में करती नहीं यार का लिहाज़