काबे से खींच लाया हम को सनम-कदे में
बन कर कमंद-ए-उल्फ़त ज़ुन्नार बरहमन का
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रग-ओ-पै में भरा है मेरे शोर उस की मोहब्बत का
अदा से देख लो जाता रहे गिला दिल का
'क़लक़' ग़ज़लें पढ़ेंगे जा-ए-कुरआँ सब पस-ए-मुर्दन
फँस गया है दाम-ए-काकुल में बुतान-ए-हिन्द के
लूटे मज़े जो हम ने तुम्हारे उगाल के
ऐ बे-ख़ुदी-ए-दिल मुझे ये भी ख़बर नहीं
सितम वो तुम ने किए भूले हम गिला दिल का
परतव पड़ा जो आरिज़-ए-गुलगून-ए-यार का
साफ़ बातों से हो गया मा'लूम
था क़स्द-ए-क़त्ल-ए-ग़ैर मगर मैं तलब हुआ
गुल-गूँ तिरी गली रहे आशिक़ के ख़ून से
वा'दा-ख़िलाफ़ कितने हैं ऐ रश्क-ए-माह आप