जमे क्या पाँव मेरे ख़ाना-ए-दिल में क़नाअ'त का
जिगर में चुटकियाँ लेता है नाख़ुन दस्त-ए-हाजत का
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कुफ्र-ओ-इस्लाम के झगड़ों से छुड़ाया सद-शुक्र
रोज़-ए-अव्वल से असीर ऐ दिल-ए-नाशाद हैं हम
राह-ए-हक़ में खेल जाँ-बाज़ी है ओ ज़ाहिर-परस्त
आश्ना होते ही उस इश्क़ ने मारा मुझ को
बहार आते ही ज़ख़्म-ए-दिल हरे सब हो गए मेरे
दफ़्तर जो गुलों के वो सनम खोल रहा है
मंज़िल है अपनी अपनी 'क़लक़' अपनी अपनी गोर
जब हुआ गर्म-ए-कलाम-ए-मुख़्तसर महका दिया
फिर मुझ से इस तरह की न कीजेगा दिल-लगी
हैं तेग़-ए-नाज़-ए-यार के बिस्मिल अलग अलग
वाइज़ की ज़िद से रिंदों ने रस्म-ए-जदीद की
अदा से देख लो जाता रहे गिला दिल का