हम उन से और वो हम से दम-ए-सुल्ह थे ख़जिल
छींटे लड़ा किए अरक़-ए-इंफ़िआ'ल के
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अपने बेगाने से अब मुझ को शिकायत न रही
ऐ बे-ख़ुदी-ए-दिल मुझे ये भी ख़बर नहीं
लूटे मज़े जो हम ने तुम्हारे उगाल के
अदा से देख लो जाता रहे गिला दिल का
आलम-ए-पीरी में क्या मू-ए-सियह का ए'तिबार
उन वाइ'ज़ों की ज़िद से हम अब की बहार में
मैं वो मय-कश हूँ मिली है मुझ को घुट्टी में शराब
बशर के फ़ैज़-ए-सोहबत से लियाक़त आ ही जाती है
जुनूँ बरसाए पत्थर आसमाँ ने मज़रा-ए-जाँ पर
गुलों पर साफ़ धोका हो गया रंगीं कटोरी का
हज़रत-ए-इश्क़ ने दोनों को किया ख़ाना-ख़राब
हम तो न घर में आप के दम-भर ठहरने आएँ