गुल-गूँ तिरी गली रहे आशिक़ के ख़ून से
यारब न हो ख़िज़ाँ से ये तेरा चमन ख़राब
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अदा से देख लो जाता रहे गिला दिल का
डोरा नहीं है सुरमे का चश्म-ए-सियाह में
ख़ुदा-हाफ़िज़ है अब ऐ ज़ाहिदो इस्लाम-ए-आशिक़ का
उन वाइ'ज़ों की ज़िद से हम अब की बहार में
मैं वो मय-कश हूँ मिली है मुझ को घुट्टी में शराब
करेंगे हम से वो क्यूँकर निबाह देखते हैं
नया मज़मून लाना काटना कोह-ओ-जबल का है
बराबर एक से मिस्रा नज़र आते हैं अबरू के
हज़रत-ए-इश्क़ ने दोनों को किया ख़ाना-ख़राब
बा'द मेरे जो किया शाद किसी को तो कहा
घाट पर तलवार के नहलाईयो मय्यत मिरी
दफ़्तर जो गुलों के वो सनम खोल रहा है