घाट पर तलवार के नहलाईयो मय्यत मिरी
कुश्ता-ए-अबरू हूँ मैं क्या ग़ुस्ल-ख़ाना चाहिए
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बोलेगा कौन आशिक़-ए-नादार की तरफ़
इश्क़ में तेरे जान-ए-ज़ार हैफ़ है मुफ़्त में चली
ऐ बे-ख़ुदी-ए-दिल मुझे ये भी ख़बर नहीं
रोज़-ए-अव्वल से असीर ऐ दिल-ए-नाशाद हैं हम
ख़ुश-क़दों से कभी आलम न रहेगा ख़ाली
बना कर तिल रुख़-ए-रौशन पर दो शोख़ी से से कहते हैं
बहार आते ही ज़ख़्म-ए-दिल हरे सब हो गए मेरे
अगर न जामा-ए-हस्ती मिरा निकल जाता
आख़िर इंसान हूँ पत्थर का तो रखता नहीं दिल
कुफ्र-ओ-इस्लाम के झगड़ों से छुड़ाया सद-शुक्र
क्या कोई दिल लगा के कहे शे'र ऐ 'क़लक़'
ये बोले जो उन को कहा बे-मुरव्वत