दिल ख़स्ता हो तो लुत्फ़ उठे कुछ अपनी ग़ज़ल का
मतलब कोई क्या समझेगा मस्तों की ज़टल का
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वो रिंद हूँ कि मुझे हथकड़ी से बैअत है
तिलाई रंग जानाँ का अगर मज़मून लिखूँ ख़त में
दस्त-ए-जुनूँ ने फाड़ के फेंका इधर-उधर
बा'द मेरे जो किया शाद किसी को तो कहा
सिंदूर उस की माँग में देता है यूँ बहार
मैं वो मय-कश हूँ मिली है मुझ को घुट्टी में शराब
गुलों पर साफ़ धोका हो गया रंगीं कटोरी का
कुछ ख़बर देता नहीं उस की दिल-ए-आगह मुझे
उम्र तो अपनी हुई सब बुत-परस्ती में बसर
दफ़्तर जो गुलों के वो सनम खोल रहा है
वा'दा-ख़िलाफ़ कितने हैं ऐ रश्क-ए-माह आप
यूँ राही-ए-अ'दम हुई बा-वस्फ़-ए-उज़्र-ए-लंग