अपने बेगाने से अब मुझ को शिकायत न रही
दुश्मनी कर के मिरे दोस्त ने मारा मुझ को
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ये बोले जो उन को कहा बे-मुरव्वत
इश्क़ में तेरे जान-ए-ज़ार हैफ़ है मुफ़्त में चली
मैं वो मय-कश हूँ मिली है मुझ को घुट्टी में शराब
रुख़ तह-ए-ज़ुल्फ़ है और ज़ुल्फ़ परेशाँ सर पर
उम्र तो अपनी हुई सब बुत-परस्ती में बसर
यार के नर्गिस-ए-बीमार का बीमार रहा
अगर न जामा-ए-हस्ती मिरा निकल जाता
मुबारक दैर-ओ-का'बा हों 'क़लक़' शैख़-ओ-बरहमन को
लूटे मज़े जो हम ने तुम्हारे उगाल के
वो रिंद हूँ कि मुझे हथकड़ी से बैअत है
डोरा नहीं है सुरमे का चश्म-ए-सियाह में
दस्त-ए-जुनूँ ने फाड़ के फेंका इधर-उधर