ऐ बे-ख़ुदी-ए-दिल मुझे ये भी ख़बर नहीं
किस दिन बहार आई मैं दीवाना कब हुआ
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घाट पर तलवार के नहलाईयो मय्यत मिरी
रोज़-ए-अव्वल से असीर ऐ दिल-ए-नाशाद हैं हम
रुख़ तह-ए-ज़ुल्फ़ है और ज़ुल्फ़ परेशाँ सर पर
लुट रही है दौलत-ए-दीदार क़ैसर-बाग़ में
अपने बेगाने से अब मुझ को शिकायत न रही
जमे क्या पाँव मेरे ख़ाना-ए-दिल में क़नाअ'त का
चला है छोड़ के तन्हा किधर तसव्वुर-ए-यार
मुबारक दैर-ओ-का'बा हों 'क़लक़' शैख़-ओ-बरहमन को
ज़मीन पाँव के नीचे से सरकी जाती है
यार के नर्गिस-ए-बीमार का बीमार रहा
कोताह उम्र हो गई और ये न कम हुई
हिम्मत का ज़ाहिदों की सरासर क़ुसूर था