अगर न जामा-ए-हस्ती मिरा निकल जाता
तो और थोड़े दिनों ये लिबास चल जाता
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सैद ख़ाइफ़ वो हों इस सैद-गह-ए-आ'लम में
वो रिंद हूँ कि मुझे हथकड़ी से बैअत है
बुत-परस्ती में भी भूली न मुझे याद-ए-ख़ुदा
जब हुआ गर्म-ए-कलाम-ए-मुख़्तसर महका दिया
सोते हैं फैल फैल के सारे पलंग पर
ख़रीदारी-ए-जिंस-ए-हुस्न पर रग़बत दिलाता है
बे-ज़बानों को भी गोयाई सिखाना चाहिए
लाग़र ऐसा वहशत-ए-इश्क़-ए-लब-ए-शीरीं में हूँ
वा'दा-ख़िलाफ़ कितने हैं ऐ रश्क-ए-माह आप
रुख़ तह-ए-ज़ुल्फ़ है और ज़ुल्फ़ परेशाँ सर पर
था क़स्द-ए-क़त्ल-ए-ग़ैर मगर मैं तलब हुआ
घाट पर तलवार के नहलाईयो मय्यत मिरी