अगर न जामा-ए-हस्ती मिरा निकल जाता
तो और थोड़े दिनों ये लिबास चल जाता
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आरिज़ में तुम्हारे क्या सफ़ा है
बा'द मेरे जो किया शाद किसी को तो कहा
पूछा सबा से उस ने पता कू-ए-यार का
तासीर जज़्ब मस्तों की हर हर ग़ज़ल में है
करेंगे हम से वो क्यूँकर निबाह देखते हैं
घाट पर तलवार के नहलाईयो मय्यत मिरी
काबे से खींच लाया हम को सनम-कदे में
ख़फ़ा हो गालियाँ दो चाहे आने दो न आने दो
आलम-ए-पीरी में क्या मू-ए-सियह का ए'तिबार
ज़मीन पाँव के नीचे से सरकी जाती है
'क़लक़' ग़ज़लें पढ़ेंगे जा-ए-कुरआँ सब पस-ए-मुर्दन
मय जो दी ग़ैर को साक़ी ने कराहत देखो