आख़िर इंसान हूँ पत्थर का तो रखता नहीं दिल
ऐ बुतो इतना सताओ न ख़ुदा-रा मुझ को
Jaun Eliya
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Allama Iqbal
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बे-ज़बानों को भी गोयाई सिखाना चाहिए
पूछा सबा से उस ने पता कू-ए-यार का
बहार आते ही ज़ख़्म-ए-दिल हरे सब हो गए मेरे
ये बारीक उन की कमर हो गई
बा'द मेरे जो किया शाद किसी को तो कहा
फँस गया है दाम-ए-काकुल में बुतान-ए-हिन्द के
नया मज़मून लाना काटना कोह-ओ-जबल का है
बशर के फ़ैज़-ए-सोहबत से लियाक़त आ ही जाती है
गर दिल में कर के सैर-ए-दिल-ए-दाग़-दार देख
साफ़ बातों से हो गया मा'लूम
हम तो हों दिल से दूर रहें पास और लोग