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ये जी में आता है जल जल के हर ज़माँ नासेह - अरशद अली ख़ान क़लक़ कविता - Darsaal

ये जी में आता है जल जल के हर ज़माँ नासेह

ये जी में आता है जल जल के हर ज़माँ नासेह

कि आग ले के जला दूँ तिरी ज़बाँ नासेह

न मनअ' इश्क़-ए-मजाज़ी से कर मुझे नादाँ

यही है बाम-ए-हक़ीक़त की नर्दबाँ नासेह

मैं तर्क-ए-इश्क़-ए-कमर यक-ब-यक करूँ क्यूँकर

समझ के मुझ को नसीहत करो मियाँ नासेह

ज़लील होगा तू इक रोज़ पंद-ए-बेजा से

तुझे ख़राब करेगी तिरी ज़बाँ नासेह

ख़ुदा के वास्ते बक बक के मेरा मग़्ज़ न खा

न तर्क होगी कभी उल्फ़त-ए-बुताँ नासेह

बजा-ए-पंद दिलाता है हुस्न पर रग़बत

हज़ार शुक्र कि पाया मिज़ाज-दाँ नासेह

क़ुबूल इताअ'त-ए-पीर-ए-मुग़ाँ बदल करना

हमारी तरह से होता अगर जवाँ नासेह

नसीहत उन की कहानी की तरह सुनता हूँ

मैं जानता हूँ कि है एक क़िस्सा-ख़्वाँ नासेह

जहाँ हसीं नज़र आया कोई पिसे वहीं हम

हमारे साथ फिरेगा कहाँ कहाँ नासेह

ज़ईफ़ हो के समझता नहीं तअ'ज्जुब है

करूँ शबाब में तर्क उल्फ़त-ए-बुताँ नासेह

करम किया है ग़म-ए-इश्क़ ने मिरे दिल में

मैं किस तरह न करूँ पास-ए-मेहमाँ नासेह

हम आप बंद किया करते हैं हज़ारों को

हमारे सामने खोलेगा क्या ज़बाँ नासेह

बुतों का कलिमा पढ़े तू अभी हमारी तरह

कमाल-ए-इश्क़ अगर पुख़्ता हो अयाँ नासेह

मैं वो हूँ आशिक़-ए-दीवाना गर मुझे की पंद

ब-रंग-ए-जैब उड़ा दूँगा धज्जियाँ नासेह

कहीं हमारी तरह ये भी फँस गया शायद

कुछ आज-कल है बहुत हम पे मेहरबाँ नासेह

'क़लक़' न हर्फ़-ए-नसीहत ज़बाँ पे लाए वो फिर

जो सुन ले मेरी मोहब्बत की दास्ताँ नासेह

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