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यार के नर्गिस-ए-बीमार का बीमार रहा - अरशद अली ख़ान क़लक़ कविता - Darsaal

यार के नर्गिस-ए-बीमार का बीमार रहा

यार के नर्गिस-ए-बीमार का बीमार रहा

यही आज़ार मिरे दरपय-ए-आज़ार रहा

उम्र-भर शेफ़्ता-ए-चश्म-ओ-लब-ए-यार रहा

कभी सूरत रही मुझ को कभी बीमार रहा

दिल को मेरे न ज़रा रंज शब-ए-तार रहा

शम-ए-अफ़रोज़ ख़याल-ए-रुख़-ओ-कद्दार रहा

लब पे दिल-सोख़्तों के नाला शरर-बार रहा

सर्द-मेहरी का तिरे गर्म ये बाज़ार रहा

मैं फ़िदा रुख़ पे वो ज़ुल्फ़ों का गिरफ़्तार रहा

दिल को तुझ से न मुझे दिल से सरोकार रहा

ख़ुद-फ़रोशी सर-ए-बाज़ार जो लाई उन को

मिस्र में एक न यूसुफ़ का ख़रीदार रहा

मेरे मरने से फँसा दाम-ए-ग़म-ओ-रंज में वो

मैं रिहा हो गया सय्याद गिरफ़्तार रहा

बुत-परस्ती में भी भूली न मुझे याद-ए-ख़ुदा

हाथ में सुब्हा गले में मिरे ज़ुन्नार रहा

लाख असीरों को किया तुम ने रहा ज़िंदाँ से

एक महरूम-ए-इनायत ये गुनहगार रहा

तेरी ऐ वहशत-ए-दिल दस्त-दराज़ी न गई

बा'द-ए-मुर्दन भी कफ़न में न कोई तार रहा

रौज़न-ए-क़ब्र से झाँके जो वो ईसा आया

मर गए पर भी हमें दीद का आज़ार रहा

चूम लीं नश्शे में आज उन की नशीली आँखें

ऐन बे-होशी-ए-लज़्ज़त में भी होशियार रहा

रुख़ से अपने जो नक़ाब उस ने उठाया तो क्या

पर्दा-ए-शर्म-ओ-हया माने-ए-दीदार रहा

दश्त-ए-वहशत में रहे क़ैस से लाखों हमराह

सारे दीवानों का मैं क़ाफ़िला-सालार रहा

बे-ख़ता कौन दिल-आज़ार ख़फ़ा था तुम से

उम्र-भर तू जो 'क़लक़' ज़ीस्त से बेज़ार रहा

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