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यगाना उन का बेगाना है बेगाना यगाना है - अरशद अली ख़ान क़लक़ कविता - Darsaal

यगाना उन का बेगाना है बेगाना यगाना है

यगाना उन का बेगाना है बेगाना यगाना है

ख़ुदाई से निराला उन बुतों का कारख़ाना है

निगाह-ए-नाज़ से सैद अपना मुर्ग़-ए-दिल नहीं होता

कभी उड़ता नहीं नावक से जो वो ये निशाना है

उधर कलियाँ चटकती हैं इधर शोर-ए-अनादिल है

चमन में किस की आमद है ये कैसा शादियाना है

जुनूँ ने की है क़ब्र-ए-क़ैस की इस तरह आराइश

चराग़-ए-ग़ूल रौशन हैं बगूला शामियाना है

हमारा हाल-ए-दिल सुनने से दिल पर चोट लगती है

उड़ा देता है नींद आँखों से जो वो ये फ़साना है

फला-फूला न किश्त-ए-दहर में तुख़्म-ए-उमीद-ए-दिल

नहीं आगाह जो नश्व-ओ-नुमा से ये वो दाना है

जहाँ कोशिश ज़रा की नक़्द-ए-मज़मून उस से हाथ आया

ज़मीन-ए-शेर में भी दफ़्न क्या कोई ख़ज़ाना है

बयाँ करता है मेरे वस्फ़ अक्सर अपनी महफ़िल में

ये उस अय्यार की मुझ से लगावट ग़ाएबाना है

नवा-संजी से मेरी बुलबुलों के होश उड़ते हैं

गुलों से भी कहीं रंगीं सिवा मेरा तराना है

तू मुश्ताक़ों से अपने चश्म-पोशी रोज़ करता है

तिरे दीदार की दौलत भी क़ारूँ का ख़ज़ाना है

उरूस-ए-मर्ग से शादी हुई है ख़ूँ से लब तर है

गले में ये शहीद-ए-नाज़ के जोड़ा शहाना है

कल उन से पूछ लेंगे करते हो अब भी दिल-आज़ारी

जहाँ तक चाहें कर लें ज़ुल्म आज उन का ज़माना है

हमें बख़्शे न बख़्शे दख़्ल या मर्ज़ी में मालिक की

वगरना उस की रहमत को तो दरकार इक बहाना है

जबी-सा रहते हैं हर-दम मलक जिन्न-ओ-बशर तो क्या

दर-ए-दौलत सरा-ए-यार का वो आस्ताना है

अनादिल की सदा क्या बूम भी है जिस जगह अन्क़ा

'क़लक़' इस गुलशन-ए-वीराँ में अपना आशियाना है

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