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वाइज़ की ज़िद से रिंदों ने रस्म-ए-जदीद की - अरशद अली ख़ान क़लक़ कविता - Darsaal

वाइज़ की ज़िद से रिंदों ने रस्म-ए-जदीद की

वाइज़ की ज़िद से रिंदों ने रस्म-ए-जदीद की

या'नी मह-ए-सियाम की पहली को ईद की

मरने के बा'द भी ये तमन्ना थी दीद की

आँखें हुईं न बंद तुम्हारे शहीद की

फिर जिंस-ए-दिल न अपनी किसी ने ख़रीद की

सच है कि क़द्र कुछ नहीं माल-ए-मज़ीद की

ये वक़्त-ए-चश्म-पोशी-ए-अहल-ए-वफ़ा नहीं

जान आँखों में है यार तिरे महव-ए-दीद की

मिस्सी दहान-ए-तंग की देखी तो शक हुआ

अंगुश्तरी है कोई नगीन-ए-हदीद की

वो शोख़ जंग-जू जो हमारे गले मिला

मातम मुख़ालिफ़ों ने मुहिब्बों ने ईद की

आलम है चश्म-ए-शौक़ का हर एक ज़र्रे में

बर्बाद ख़ाक है ये किसी महव-ए-दीद की

क्या बे-नुक़त सुनाई हैं उस तिफ़्ल-ए-शौक़ ने

क़ासिद ने नामा दे के तलब जब रसीद की

क्यूँ वो सवाल-ए-वस्ल का देते नहीं जवाब

हाजत है उन के क़ुफ़्ल-ए-दहन को कलीद की

ग़ुस्से से आग हो के हुए तर पसीने में

इत्र-ए-बहार हुस्न की अपने कशीद की

किस रोज़ मैं ने मुसहफ़-ए-रुख़्सार मस किया

झूटी न क़समें खाओ कलाम-ए-मजीद की

देखे न पीर-ज़ाल जहाँ को उठा के आँख

मर्दों में आबरू नहीं कुछ ज़न-मुरीद की

बे-शुबह ऐ 'क़लक़' सग-ए-दुनिया है वो बशर

जिस ने ब-दिल इताअ'त-ए-नफ़्स-ए-पलीद की

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