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साफ़ बातों से हो गया मा'लूम - अरशद अली ख़ान क़लक़ कविता - Darsaal

साफ़ बातों से हो गया मा'लूम

साफ़ बातों से हो गया मा'लूम

होते हो मतलब-आश्ना मा'लूम

कुश्ता तेग़-ए-निगह से कीजिएगा

चश्म-ओ-अबरू से हो गया मा'लूम

इब्तिदा ने मोहब्बत-ए-दिल की

ये न थी हम को इंतिहा मा'लूम

कुछ दहन ही नहीं है वो नापैद

कमर-ए-यार भी है ना-मा'लूम

दर तक उस के मिरी रसाई हो

तुझ से ऐ बख़्त-ए-ना-रसा मा'लूम

जब कहा रोके तुझ पे मरते हैं

हँस के बोला वो बुत ख़ुदा-मा'लूम

मेहरबाँ आज-कल है वो बे-मेहर

उस में होती है कुछ दुआ मा'लूम

तुम सुख़न-साज़ हो बड़े ऐ जान

तर्ज़-ए-तक़रीर से हुआ मा'लूम

जब मुअम्मे में ज़िक्र-ए-वस्ल किया

बोला मतलब न कुछ हुआ मा'लूम

बद-गुमाँ दुख़्त-ए-रज़ से वाइज़ हो

हम को होती है पारसा मा'लूम

ले के दिल वो करेगा बेदर्दी

ये न ढंग उस का क़ब्ल था मा'लूम

क़ाबिल-ए-इश्क़ ये हसीन नहीं

इन दग़ा-बाज़ों से वफ़ा मा'लूम

जब कहा मैं ने ओ तग़ाफ़ुल-केश

हाल है मेरे इश्क़ का मा'लूम

मिस्ल-ए-आईना हैरती हूँ क़दीम

बोला लाखों हैं ऐसे क्या मा'लूम

हाँ मगर हम को देखा तो है कहीं

होते हो सूरत-आश्ना मा'लूम

साबिक़ा जब तक ऐ 'क़लक़' न पड़े

हाल इंसान का हो क्या मा'लूम

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