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रग-ओ-पै में भरा है मेरे शोर उस की मोहब्बत का - अरशद अली ख़ान क़लक़ कविता - Darsaal

रग-ओ-पै में भरा है मेरे शोर उस की मोहब्बत का

रग-ओ-पै में भरा है मेरे शोर उस की मोहब्बत का

नमक-परवर वो हूँ मैं यार के हुस्न-ओ-मलाहत का

बनाने से मिरे बिगड़ा ये रंग उन की तबीअत का

मुझी से है परी-ज़ादों को दा'वे आदमियत का

ख़रीदारी-ए-जिंस-ए-हुस्न पर रग़बत दिलाता है

बना है शौक़-ए-दिल दल्लाल बाज़ार-ए-मोहब्बत का

सदा-ए-आह है मिज़राब-ए-ग़म की छेड़ से पैदा

दिल-ए-नालाँ नया पर्दा है क़ानून-ए-मोहब्बत का

जो वक़्त-ए-क़त्ल उस के ला'ल-ए-शीरीं का पड़ा परतव

पिलाया आब-ए-तेग़-ए-यार ने शर्बत शहादत का

हुआ ये दिल न जब मेरा तो फिर क्या और का होगा

भरोसा कीजियो तुम भी न ऐसे बे-मुरव्वत का

ज़माने को तो मेरे वास्ते इन सब ने छोड़ा है

न हूँ किस तरह मैं मम्नून दर्द-ए-रंज-ओ-मेहनत का

अबस आसूदगान-ए-ख़ाक को बद-ख़्वाब करते हो

अभी से क्यूँ मचा रक्खा है हंगामा क़यामत का

ज़ईफ़ी में बशर लहव-ओ-लअ'ब को तर्क करते हैं

सफ़ेदी मू-ए-सर की नूर है क्या चश्म-ए-इबरत का

बहार-ए-बाग़-ए-आलम बे-सबात ऐसी है ऐ बुलबुल

गुमाँ है ख़ंदा-ए-गुल पर सदा-ए-कूस-ए-रेहलत का

दबिस्तान-ए-अज़ल में ऊस्ताद-ए-इश्क़ ने मुझ को

सबक़ पहले दिया था अबजद-ए-वाब-ए-मोहब्बत का

सदा याँ हिल्लत-ए-बिंत-ए-इनब की अक़्द जारी है

तरीक़ा है निराला पीर-ए-मय-कश की तरीक़त का

जो पाया मुग़्बचों में तर्ज़-ए-ए'जाज़-ए-मसीहाई

हुआ ज़ाहिद भी क़ाइल पीर-ए-मय-कश की करामत का

सुबूत-ए-जुर्म उल्फ़त कर के मारा उस के सौदे ने

तिरी ज़ुल्फ़-ए-रसा दर्रा बनी शरअ'-ए-मोहब्बत का

न देखा मुड़ के भी फिर अहद-ए-पीरी में जवानी ने

अबस मज़कूर करते हो तुम ऐसे बे-मुरव्वत का

वो बेकस हूँ सिवाए शबनम-ए-गिर्यां पस-ए-मुर्दन

दिया रोने में किस ने साथ मेरी शम-ए-तुर्बत का

गुबार-ए-कीना-ओ-बुग़्ज़-ओ-हसद से पाक है ये दिल

हमारे आइने ने मुँह नहीं देखा कुदूरत का

करें क्या रिंद मशरब इख़्तियार इक मज़हब ऐ वाइ'ज़

नहीं दिल तोड़ना मंज़ूर हफ़्ताद-ओ-दो-मिल्लत का

'क़लक़' हर वक़्त अब है सामना तकलीफ़-ए-पीरी का

जवानी लूट कर सब ले गई अस्बाब राहत का

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