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परतव-ए-रुख़ का तिरे दिल में गुज़र रहता है - अरशद अली ख़ान क़लक़ कविता - Darsaal

परतव-ए-रुख़ का तिरे दिल में गुज़र रहता है

परतव-ए-रुख़ का तिरे दिल में गुज़र रहता है

साथ आईने के आईने का घर रहता है

आज-कल जोश पे ये दीदा-ए-तर रहता है

मर्दुम-ए-शहर को तूफ़ान का डर रहता है

क़त्ल-ए-उश्शाक़ उन्हें मद्द-ए-नज़र रहता है

नीमचा आठ-पहर ज़ेब-ए-कमर रहता है

सोज़-ए-उल्फ़त का है परवाना दिल-ए-बज़्म अपना

ये वो पम्बा है निहाँ जिस में शरर रहता है

बज़्म-ए-उल्फ़त में क़दम रखते हैं जो लोग अपना

शम्अ' की तरह कफ़-ए-दस्त पे सर रहता है

चश्म-ए-मयगूँ से है साक़ी की मोहब्बत जिस को

नश्शा-ए-मय में वो चोर आठ-पहर रहता है

क़ौल-ओ-इक़रार पे क्यूँ छोड़ दिया दहन-ए-यार

इस नदामत से गरेबान में सर रहता है

अब तो दम-भर उन्हें फ़ुर्सत नहीं आराइश से

आइना आठ-पहर पेश-ए-नज़र रहता है

कुश्ता-ए-तेग़-ए-निगह तालिब-ए-दीदार रहें

चश्म-ए-जानाँ को ये मंज़ूर-ए-नज़र रहता है

ये भी हैं उस फ़लक-ए-हुस्न के जूया मिरी तर्ह

चाँद सूरज को जो दिन-रात सफ़र रहता है

जब बिगड़ते हैं तो मनने का वो लेते नहीं नाम

पहरों अपना क़दम-ए-यार पे सर रहता है

बेला बाटेंगे सवारी में किसी गुल के ये क्या

ग़ुंचों की मुट्ठियों में किस लिए ज़र रहता है

मैं वो दीवाना हूँ जब फ़स्ल-ए-बहार आती है

मेरे वीराने में परियों का गुज़र रहता है

वस्ल की शब भी नहीं चैन से कटने पाती

हर-दम आज़ुर्दगी-ए-यार का डर रहता है

देखने वाले समझते हैं अबस तार-ए-नज़र

मेरी आँखों में तिरा मू-ए-कमर रहता है

ग़ैर के बस में 'क़लक़' क्यूँ न हो वो सीम-बदन

क़ाबू-ए-यार में गंजीना-ए-ज़र रहता है

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