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परतव पड़ा जो आरिज़-ए-गुलगून-ए-यार का - अरशद अली ख़ान क़लक़ कविता - Darsaal

परतव पड़ा जो आरिज़-ए-गुलगून-ए-यार का

परतव पड़ा जो आरिज़-ए-गुलगून-ए-यार का

उठा तनूर-ए-लाला से तूफ़ाँ बहार का

हम-चश्म लाला है जो दिल-ए-दाग़-दार का

नर्गिस को हम सा आरिज़ा है इंतिज़ार का

लिखता है वस्फ़ शो'ला-ए-रुख़्सार-ए-यार का

जा-ए-वरक़ हो हाथ में पत्ता चिनार का

बीमार-ए-इश्क़ हूँ लब-ओ-दंदान-ए-यार का

नुस्ख़े में मेरे चाहिए शर्बत अनार का

रिश्ते की तरह से दुर-ए-दंदाँ का तेरे ज़ार

साकिन है कूचा-ए-गुहर-ए-आब-दार का

आसार-ए-इश्क़-ए-ख़ाक से भी अपने हैं अयाँ

बे-वज्ह रंग ज़र्द नहीं है ग़ुबार का

हर ज़र्रा अपनी ख़ाक का है चश्म-ए-इन्तिज़ार

यारब इधर भी हो गुज़र उस शहसवार का

हम आसियों को बा'द-ए-फ़ना भी ये ख़ौफ़ है

तख़्ता उलट न जाए ज़मीन-ए-मज़ार का

कलियाँ तलक न निकली थीं जब से असीर हूँ

देखा मज़ा न कुछ चमन-ए-रोज़गार का

चश्मान-ए-यार करने लगीं हैं दिलों को सैद

इन आहुओं को शौक़ हुआ है शिकार का

वो दिल-जले हैं शोला-ए-जव्वाला बन गया

उट्ठा जो गर्द-ए-बाद हमारे ग़ुबार का

याद-ए-मिज़ा ने बाग़-ए-दिल-ए-दाग़-दार में

खटका लगा दिया ख़लिश-ए-नोक-ए-ख़ार का

कुश्ता हूँ एक तर्क के तीर-ए-निगाह का

अंदाज़-ए-मुर्ग़ दिल में है ज़ख़्मी शिकार का

रख़्त-ए-सफ़ेद सूरत-ए-मीना-ए-मय है सुर्ख़

क्या रंग फूट निकला है अंदाम-ए-यार का

फूलों की जा प्याला हो लबरेज़ फूल से

तीजा है मय-कशो 'क़लक़'-ए-बादा-ख़्वार का

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