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न कल तक थे वो मुँह लगाने के क़ाबिल - अरशद अली ख़ान क़लक़ कविता - Darsaal

न कल तक थे वो मुँह लगाने के क़ाबिल

न कल तक थे वो मुँह लगाने के क़ाबिल

हुए आज बातें बनाने के क़ाबिल

तिरी बंदगी और सियहकार मुझ सा

ये सर और तिरे आस्ताने के क़ाबिल

लब-ए-ज़ख़्म-ए-दिल पर ये है शोर क़ातिल

तिरी तेग़ का फल है खाने के क़ाबिल

निकाले सनम पेट से पाँव तुम ने

हुए जब कहीं आने-जाने के क़ाबिल

दिल-ए-बुल-हवस लाएक़-ए-दाग़-ए-उल्फ़त

ये दरहम न थे इस ख़ज़ाने के क़ाबिल

उन आईना-रूयों की उल्फ़त ने ऐ दिल

न रक्खा हमें मुँह दिखाने के क़ाबिल

यहाँ सौ हैं खटके चलो इस चमन से

नहीं ये जगह आशियाने के क़ाबिल

पतंगे हैं गुस्ताख़ ऐ शमअ'-पैकर

नहीं तेरी महफ़िल में आने के क़ाबिल

कोई उस के दुज़्द-ए-हिना से ये कह दे

मिरा नक़्द-ए-दिल है चुराने के क़ाबिल

कभी ख़ून में मेरे भी हाथ तर कर

ये मेहंदी है तेरे लगाने के क़ाबिल

फ़लक क्या रुलाया करेगा हमेशा

कभी हम भी होंगे हँसाने के क़ाबिल

मरीज़-ए-मोहब्बत तुम्हारा है लाग़र

नहीं यार फ़ुर्क़त उठाने के क़ाबिल

किसे देखें हम और दिखलाएँ किस को

न अब देखने ने दिखाने के क़ाबिल

ग़श उस्तादियों पर हैं जानें न पूछें

'क़लक़' ऐसे हैं इस ज़माने के क़ाबिल

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