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लुट रही है दौलत-ए-दीदार क़ैसर-बाग़ में - अरशद अली ख़ान क़लक़ कविता - Darsaal

लुट रही है दौलत-ए-दीदार क़ैसर-बाग़ में

लुट रही है दौलत-ए-दीदार क़ैसर-बाग़ में

मिस्ल-ए-गुल सब हो गए ज़रदार क़ैसर-बाग़ में

देखते हैं यार का पढ़ता है कलिमा कौन कौन

जम्अ' हैं सब काफ़िर-ओ-दींदार क़ैसर-बाग़ में

हम से आँख उस ने लड़ाई तेवरी बदली ग़ैर ने

चलते चलते रह गई तलवार क़ैसर-बाग़ में

उस कमान-ए-अबरू ने कीं दिल पर नज़र-अंदाज़ियाँ

हम पे तीरों की हुई बौछार क़ैसर-बाग़ में

गाते हैं मुर्ग़ान-ए-गुलशन पेंग देती है सदा

जबकि झूला झूलता है यार क़ैसर-बाग़ में

बे-ख़ुदी छाई हुई है ये शराब-ए-ऐश की

मस्त दो बाहर पड़े हैं चार क़ैसर-बाग़ में

याँ हवा में है दम-ए-ईसा का आलम क्या अजब

पाए सेहत नर्गिस-ए-बीमार क़ैसर-बाग़ में

मैं तो क्या होते हैं गुल भी कुश्ता-ए-तेग़-ए-ख़िराम

बाँकी तिरछी चलते हो रफ़्तार क़ैसर-बाग़ में

जल्वा-अफ़्गन नूर के हैं फूल फल तूबा की तर्फ़

ख़ुल्द से मँगवाए हैं अश्जार क़ैसर-बाग़ में

अब तो ऐ रश्क-ए-चमन सूरत दिखाना चाहिए

नाला-कश है अंदलीब-ए-ज़ार क़ैसर-बाग़ में

वो न थे पहलू में तो उस ने भी की पहलू-तही

मुझ से दिल में दिल से था बेज़ार क़ैसर-बाग़ में

दौर-ए-इशरत है ये ज़ोरों पर हैं मय-कश क्या अजब

मोहतसिब की छीन लें दस्तार क़ैसर-बाग़ में

आमद आमद है सलामी को हमारे शाह की

हैं जवानान-ए-चमन तय्यार क़ैसर-बाग़ में

मोहतसिब के हाथ से तंग इस क़दर हैं ऐ 'क़लक़'

आए हैं नालिश को सब मय-ख़्वार क़ैसर-बाग़ में

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