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जो साक़िया तू ने पी के हम को दिया है जाम-ए-शराब आधा - अरशद अली ख़ान क़लक़ कविता - Darsaal

जो साक़िया तू ने पी के हम को दिया है जाम-ए-शराब आधा

जो साक़िया तू ने पी के हम को दिया है जाम-ए-शराब आधा

तू अपने दाँतों से काट कर दे हमारे मुँह में कबाब आधा

वो पुर-गुनह हूँ कि रह गए सब उसी में दिन कट गया वो सारा

हनूज़ महशर के महकमे में हुआ था मेरा हिसाब आधा

कहाँ गई अब वो लन-तरानी न ताब जल्वे की लाए आशिक़

हुनूज़ खोला था बहर-ए-दीदार उस ने बंद-ए-नक़ाब आधा

जज़ा-ए-कामिल जो चाहता है तो ज़ब्ह कर डाल जल्द क़ातिल

न छोड़ना मुझ को नीम-बिस्मिल कि पाएगा तू सवाब आधा

दिमाग़ देखो मिरे सनम का गिला जो करता हूँ मैं सितम का

तो देते हैं सारी बात का वो मुझे ब-दिक़्क़त जवाब आधा

सफ़ेद-ओ-सुर्ख़ है ऐसी रंगत कि जब बना होगा उस का पुतला

मिलाया होवेगा उस में साने' ने मैदा आधा शहाब आधा

दुपट्टा आब-ए-रवाँ का सर का जो उस की महरम से समझे ये हम

कि बहर-ए-हुस्न-ए-सनम का हम को दिया दिखाई हबाब आधा

इशारा है साफ़ ऐ 'क़लक़' ये कि आओ सहबा-कशी हो बाहम

जो उस ने भेजी है अपनी झूटी शराब आधी कबाब आधा

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