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हम तो हों दिल से दूर रहें पास और लोग - अरशद अली ख़ान क़लक़ कविता - Darsaal

हम तो हों दिल से दूर रहें पास और लोग

हम तो हों दिल से दूर रहें पास और लोग

सूंघें गुल-ए-एज़ार की बू-बास और लोग

वाइज़ हमें डरा न वफ़ूर-ए-गुनाह से

उस के करम से होते हैं बे-आस और लोग

सौदा-ए-इश्क़ याँ तो है सर में भरा हुआ

नाम-ए-जुनूँ से करते हैं विसवास और लोग

आज़ाद-गान-ए-इश्क़ हर इक हाल में हैं शाद

होंगे असीर-ए-रंज-ओ-ग़म-ओ-यास और लोग

हैं सेर बोरिया-ए-तवक्कुल के फ़ाक़ा-मस्त

होते हैं मुज़्तरिब दम-ए-इफ़्लास और लोग

याँ है फ़क़त हवस दुर-ए-दंदाँ के दीद की

खाते हैं उस के दाँतों पे अल्मास और लोग

संजोग एक अपना तुम्हारा अज़ल से है

पूछें ब्रह्मनों से बुतो रास और लोग

उठ्ठे फ़ना ओ एक न इक क्या बईद है

अब बैठने लगे हैं तिरे पास और लोग

उस आब-ए-लाल पर कभी हम भी मुहीत थे

लब चूस कर बुझाए हैं अब प्यास और लोग

हम तो न घर में आप के दम-भर ठहरने पाएँ

रोज़ आएँ जाएँ सूरत-ए-अन्फ़ास और लोग

अपने नसीब में तो न हो आब-ए-ख़िज़्र-ए-लब

सैराब हों ब-सूरत-ए-इल्यास और लोग

दीवान में मिरे नहीं भरती के ऐसे शेर

भरते हैं जैसे सफ़्हा-ए-क़िर्तास और लोग

वो बेवफ़ा करेगा मिरी क़द्र क्या 'क़लक़'

करते हैं अपने आशिक़ों का पास और लोग

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