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हैं तेग़-ए-नाज़-ए-यार के बिस्मिल अलग अलग - अरशद अली ख़ान क़लक़ कविता - Darsaal

हैं तेग़-ए-नाज़-ए-यार के बिस्मिल अलग अलग

हैं तेग़-ए-नाज़-ए-यार के बिस्मिल अलग अलग

सीने में हैं तपाँ जिगर-ओ-दिल अलग अलग

क़ातिल तो रश्क देख ज़रा अपने कुश्तों का

मक़्तल में भी तड़पते हैं बिस्मिल अलग अलग

क्या इंतिज़ाम है मिरे लैला-जमाल का

मजनूँ रवाँ हैं सब पस-ए-महमिल अलग अलग

देखो बशर में सनअ'त-ए-ख़ल्लाक़-ए-रोज़गार

सब एक हैं मगर है शमाइल अलग अलग

फ़रमाते हैं मिलाप का करता हूँ जब सवाल

तू बात करने के नहीं क़ाबिल अलग अलग

इक शेफ़्ता है ज़ुल्फ़ का इक मुब्तला-ए-रुख़

हैं शैख़-ओ-बरहमन तिरे क़ाइल अलग अलग

मेरे तुम्हारे बुलबुल-ओ-गुल मुँह चढ़ेंगे क्या

दोनों को कर चुका हूँ मैं क़ाइल अलग अलग

मक्र-ओ-निफ़ाक़ इश्क़ से मुद्दत तलक रहा

मैं दिल से और मुझ से मिरा दिल अलग अलग

ता हो तमीज़ लज़्ज़त-ए-बादाम-ओ-शहद में

बोसों का चश्म-ओ-लब के हूँ साइल अलग अलग

किस किस को दूँ मैं सख़्त मुसीबत में जान है

रुख़सार-ओ-ज़ुल्फ़ माँगते हैं दिल अलग अलग

क्या मेहर-ओ-माह क्या गुल-ओ-शमशाद आइना

सब हो चुके हैं तेरे मुक़ाबिल अलग अलग

यकता तू वो है मोमिन-ओ-काफ़िर यहूद-ओ-गब्र

वहदत के तेरे सब हैं ये क़ाइल अलग अलग

पा-ए-निगाह-ए-अहल-ए-नज़र के पड़े हैं नील

रुख़्सार-ए-नाज़नीं पे नहीं तिल अलग अलग

आगे तो साथ रहते थे हम हाला साँ पर अब

रहता है हम से वो मह-ए-कामिल अलग अलग

अंदाज़-ओ-नाज़-ओ-ग़मज़ा-ओ-शोख़ी-ओ-कजरवी

हैं एक मेरे दम के ये क़ातिल अलग अलग

क़ब्ज़े पे हाथ रख के 'क़लक़' ने मिलाई आँख

कल हर रक़ीब से सर-ए-महफ़िल अलग अलग

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